दाख की बारी में मजदूरों के दृष्टान्त का क्या अर्थ है?
दाख की बारी में मजदूरों के दृष्टान्त में, यीशु ने स्वर्ग के राज्य को एक जमींदार के रूप में देखा, जो सुबह-सुबह अपनी दाख की बारी के लिए मजदूरों को रखने के लिए निकला था। वह श्रमिकों के पहले समूह को एक दिन में एक दीनार देने के लिए सहमत हो गया। फिर, वह तीसरे घंटे, छठे, नौवें और ग्यारहवें घंटे के आसपास फिर से चला गया और अधिक सहायकों को काम पर रखा। सो दिन के अन्त में उसने मज़दूरों को मज़दूरी दी, जो आखिरी से लेकर पहले तक एक-एक दीनार देता रहा।
“स्वर्ग का राज्य किसी गृहस्थ के समान है, जो सबेरे निकला, कि अपने दाख की बारी में मजदूरों को लगाए। और उस ने मजदूरों से एक दीनार रोज पर ठहराकर, उन्हें अपने दाख की बारी में भेजा। फिर पहर एक दिन चढ़े, निकल कर, और औरों को बाजार में बेकार खड़े देखकर, उन से कहा, तुम भी दाख की बारी में जाओ, और जो कुछ ठीक है, तुम्हें दूंगा; सो वे भी गए। फिर उस ने दूसरे और तीसरे पहर के निकट निकलकर वैसा ही किया। और एक घंटा दिन रहे फिर निकलकर औरों को खड़े पाया, और उन से कहा; तुम क्यों यहां दिन भर बेकार खड़े रहे? उन्हों ने उस से कहा, इसलिये, कि किसी ने हमें मजदूरी पर नहीं लगाया। उस ने उन से कहा, तुम भी दाख की बारी में जाओ। सांझ को दाख बारी के स्वामी ने अपने भण्डारी से कहा, मजदूरों को बुलाकर पिछलों से लेकर पहिलों तक उन्हें मजदूरी दे दे। सो जब वे आए, जो घंटा भर दिन रहे लगाए गए थे, तो उन्हें एक एक दीनार मिला।”
इसलिए, पहले श्रमिकों ने अपने वेतन के बारे में यह सोचकर शिकायत की कि उन्हें और मिलेगा। लेकिन जमींदार ने उन्हें उत्तर दिया, “जो पहिले आए, उन्होंने यह समझा, कि हमें अधिक मिलेगा; परन्तु उन्हें भी एक ही एक दीनार मिला। जब मिला, तो वह गृहस्थ पर कुडकुड़ा के कहने लगे। कि इन पिछलों ने एक ही घंटा काम किया, और तू ने उन्हें हमारे बराबर कर दिया, जिन्हों ने दिन भर का भार उठाया और घाम सहा? उस ने उन में से एक को उत्तर दिया, कि हे मित्र, मैं तुझ से कुछ अन्याय नहीं करता; क्या तू ने मुझ से एक दीनार न ठहराया? जो तेरा है, उठा ले, और चला जा; मेरी इच्छा यह है कि जितना तुझे, उतना ही इस पिछले को भी दूं। क्या उचित नहीं कि मैं अपने माल से जो चाहूं सो करूं? क्या तू मेरे भले होने के कारण बुरी दृष्टि से देखता है? इसी रीति से जो पिछले हैं, वह पहिले होंगे, और जो पहिले हैं, वे पिछले होंगे” (मत्ती 20:1-16)।
यीशु यह दिखाना चाहता था कि जिन लोगों को पहले काम पर रखा गया था, वे यहूदियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने सबसे पहले प्रभु की अपनी दाख की बारी में काम करने की बुलाहट को स्वीकार किया था। परन्तु उसका निमंत्रण बाद में अन्यजातियों को दिया गया जिन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। यीशु ने महायाजकों को घोषित किया कि चुंगी लेनेवाले और वेश्याएँ उनसे पहले स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे (मत्ती 21:31,32)। वास्तव में, “परन्तु वह कहेगा, मैं तुम से कहता हूं, मैं नहीं जानता तुम कहां से हो, हे कुकर्म करनेवालो, तुम सब मुझ से दुर हो। वहां रोना और दांत पीसना होगा: जब तुम इब्राहीम और इसहाक और याकूब और सब भविष्यद्वक्ताओं को परमेश्वर के राज्य में बैठे, और अपने आप को बाहर निकाले हुए देखोगे” (लूका 13:27, 28)।
यीशु यहाँ स्पष्ट करते हैं कि ईश्वरीय स्वीकृति अर्जित नहीं की जाती है, जैसा कि उनके समय के धार्मिक नेताओं ने सिखाया था। यदि परमेश्वर केवल न्याय के आधार पर मनुष्यों के साथ व्यवहार करता, तो कोई भी स्वर्ग और अनन्त जीवन के प्रतिफल के योग्य नहीं होता। यह न्याय या अन्याय की बात नहीं है बल्कि उनकी तरफ से उदारता की बात है। यह शिक्षा, पद, प्रतिभा, श्रम की मात्रा या योग्यता नहीं है जो स्वर्ग की दृष्टि में मायने रखती है, बल्कि परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में इच्छा और विश्वास की भावना है।
परमेश्वर की सेवा में,
BibleAsk टीम
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